इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले पर सुनवाई के दौरान अनचाहे गर्भ (Allahabad High Court On Unwanted Pregnancy) को हटाने को लेकर बड़ा फैसला दिया है.
कोर्ट ने एक नाबालिग पीड़िता को 29 हफ्ते की अनवांटेड प्रेग्नेंसी के अबॉर्शन की अनुमति दे दी है. अदालत ने कहा कि जिलों के सीएमओ और डॉक्टर्स मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (Medical Termination Of Pregnancy) की प्रक्रिया नहीं जानते हैं. इसके साथ ही अदालत ने प्रमुख सचिव चिकित्सा स्वास्थ्य को एसओपी जारी करने का निर्देश दिया है. साथ ही पीड़ित परिवार का नाम गुप्त रखने का भी निर्देश दिया है.
CMO और डॉक्टरों को प्रक्रिया की जानकारी नहीं
इलाहाबाद हाईकोर्ट मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी की अनुमति दिए जाने के लिए दाखिल एक यचिका पर सुनवाई कर रही थी. इसी दौरान अपने आदेश में अदालत ने कहा कि प्रदेश में सीएमओ और डॉक्टरों को महिला की जांच करते समय अनचाहे गर्भ को हटाने ( मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी ) के मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती है. इसलिए हाईकोर्ट ने प्रमुख सचिव चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण को मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) जारी करने का निर्देश दिया गया है. इस एसओपी का पालन सभी मुख्य चिकित्सा अधिकारियों और उनके द्वारा गठित बोर्डों द्वारा किया जाएगा. ये आदेश जस्टिस शेखर बी.सराफ और जस्टिस मंजीव शुक्ला की डबल बेंच ने दिया है.
नाबालिग 29 हफ्ते की प्रेग्नेंट
दरअसल नाबालिग पीड़िता और उसके परिवार ने गर्भपात ( Medical Termination of Pregnancy) कराने की अनुमति के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की. कोर्ट ने मेडिकल बोर्ड के गठन का निर्देश दिया था, जिसने अपनी रिपोर्ट पेश की.
कोर्ट ने इसलिए दी गर्भपात की परमिशन
मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट में कहा गया है कि पीड़िता की प्रेगनेंसी लगभग 29 हफ्ते की है. इस अवस्था में गर्भ को पूर्ण अवधि तक ले जाने से पीड़िता के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचेगा. पीड़िता और उसके परिवार के सदस्य मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी चाहते थे, इसलिए कोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली और गर्भपात की अनुमति दे दी है.
क्या है मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी?
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनसे पता चला कि जिलों के CMO सेत मेडिकल कॉलेजों और पीड़िता की जांच के लिए मेडिकल बोर्ड के सदस्य के रूप में नियुक्त डॉक्टरों को पीड़िता की जांच करते समय और उसके बाद मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी के दौरान अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में उचित जानकारी नहीं होती है. अदालत ने कहा कि Medical Termination of Pregnancy Act, 1971 में निर्धारित की गई है. मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी रूल्स, 2003 और मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी रेगुलेशन, 2003 के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों में भी ऐसे मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया गया है.
गर्भपात को लेकर कोर्ट ने कही ये बातें
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि पूरी प्रक्रिया में शामिल संवेदनशीलता को ध्यान में रखना होगा.
कोर्ट ने कहा कि यह गंभीर चिंता का विषय है कि कुछ जिलों के डॉक्टर उपरोक्त विधानों और सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया द्वारा स्थापित प्रक्रिया से बिल्कुल भी परिचित नहीं है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों का नाम केस के कंप्यूटर रिकॉर्ड से हटा दिया जाए.
अदालत ने कहा कि भविष्य में गर्भावस्था की मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी से संबंधित ऐसे सभी मामलों में पीड़िता या उसके परिवार के सदस्यों का नाम का जिक्र नहीं किया जाना चाहिए.
ऐसे मामलों में शीर्षक में पीड़िता या याचिका दायर करने वाले उसके किसी रिश्तेदार के लिए केवल ‘X’ अक्षर का प्रयोग होना चाहिए.
सर्कुलर जारी करने का निर्देश
कोर्ट ने यूपी के प्रमुख सचिव, चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण को एक सर्कुलर जारी करने का निर्देश भी दिया, जिसमें ऐसे मामलों में मुख्य चिकित्सा अधिकारियों और मेडिकल बोर्ड द्वारा पालन की जाने वाली व्यापक मानक संचालन प्रक्रिया (Standard Operating Procedure) को अपनाया जाए. कोर्ट ने रजिस्ट्रार अनुपालन को निर्देश दिया कि इस आदेश की एक कॉपी यूपी के प्रमुख सचिव, चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और मुख्य चिकित्सा अधिकारी को तत्काल प्रेषित करें.